एनजीटी समिति पक्षपातपूर्ण, अवैज्ञानिक है और अविश्वसनीय है | NGT committee is biased, unscientific and lacks credibility

आध्यात्मिकता और मानवीय मूल्य | Updated: | 1 min read


एनजीटी समिति पक्षपातपूर्ण, अवैज्ञानिक है और अविश्वसनीय है | NGT committee is biased, unscientific and lacks credibility  

हाल ही में एनजीटी को समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में कोई विश्लेषण नहीं है, कोई गहन जाँच नहीं है, निष्कर्षों का समर्थन करने के लिए किसी भी वैज्ञानिक परीक्षण की कोई रिपोर्ट नहीं है। रिपोर्ट में दिए गए निष्कर्ष बिना किसी वैज्ञानिक आधार के सिर्फ़ विशेषज्ञ समिति की राय हैं। रिपोर्ट डब्ल्यूसीएफ जमीन की वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाती है। बिना किसी वैज्ञानिक अध्ययन या विश्वसनीयता के ऐसी किसी भी रिपोर्ट पर कार्यवाही कैसे की जा सकती है।

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एनजीटी समिति पक्षपातपूर्ण, अवैज्ञानिक है और अविश्वसनीय है|

सभी तथ्य इस ओर इशारा करते हैं कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) आर्ट ऑफ लिविंग के प्रति दुर्भावना रखता है तथा उसे बदनाम करना चाहता है।

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एनजीटी की विशेषज्ञ समिति स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण है। निम्नलिखित तथ्य उनके पूर्वाग्रह को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं:

  1. विश्व संस्कृति महोत्सव के आयोजन से पूर्व ही समिति ने मुआवजे के रूप में 120 करोड़ रुपए की मनमानी राशि की सिफारिश की। आर्ट ऑफ लिविंग को बाद में विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष श्री शशि शेखर के एनजीटी को लिखा एक पत्र मिला जिसमें उन्होंने यह माना था कि यह एक “असावधानी पूर्वक की गई गलती” थी। यह समिति की पूर्वधारणा को दर्शाता है।
    एनजीटी की पहले से ही की गई इस गलती से स्पष्ट होता है कि अब उन्होंने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है वो सिर्फ़ पूर्व में लिए गए अपने बेतुके निष्कर्षों को सही ठहराने के लिए अथवा अपने ऊपर आने वाले आपेक्षों को कम करने के लिए की गई है। इसलिए उनकी इन गलतियों तथा उनके पक्षपातपूर्ण रवैये कारण यह समिति इस मामले की जाँच करने के लिए तथा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए सही नहीं है। ट्रिब्यूनल को चाहिए कि हमारे पूर्व में किए गए अनुरोध के अनुसार इस मामले की छानबीन करने के लिए विशेषज्ञों की एक स्वतंत्र समिति गठित करे।  क्योंकि यह निश्चित है कि समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट आधारहीन है तथा इसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है।
  2. विशेषज्ञ समिति के सदस्यों में से एक, प्रोफेसर सी आर बाबू, मीडिया के समक्ष याचिकाकर्ता मनोज मिश्रा के मामले का प्रचार कर रहे थे ! मीडिया को दिए गए एक साक्षात्कार में, उन्होंने आर्ट ऑफ़ लिविंग को बदनाम किया, बिना किसी आकलन के उन्होंने यह निष्कर्ष भी निकाल लिया कि कार्यक्रम से बहुत नुकसान हुआ है। यह स्पष्ट रूप से उनके पूर्वाग्रह को ही दर्शाता है।
  3. एनजीटी की विशेषज्ञ समिति के एक अन्य सदस्य प्रो.बृज गोपाल का याचिकाकर्ता मनोज मिश्रा के साथ निकट संबंध है। विगत कुछ वर्षों में उन्होंने याचिकाकर्ता के साथ संयुक्त रूप से अन्य परियोजनाओं में छानबीन की है, यात्राएँ की हैं तथा कार्य किए हैं। इन तथ्यों का खुलासा नहीं किया गया था।

डब्ल्यूसीएफ़ मामले में एनजीटी याचिकाकर्ता मनोज मिश्रा तथा एनजीटी के प्रमुख समिति सदस्य प्रो.बृज गोपाल जो कि वर्तमान क्षति आकलन टीम के सदस्य भी हैं, के बीच निकटता को निम्नलिखित तथ्यों में देखा जा सकता है:

  1. संयुक्त व्याख्यान: लेख पढ़ें :यहाँ विशेषज्ञ समिति के सदस्य प्रो.बृज गोपाल तथा मनोज मिश्रा वर्ष 2013 में एक वक्ता के रूप में उपस्थित थे। उनकी निकटता बहुत पुरानी है। यह बात भी गौर करने योग्य है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में कहा है कि यमुना पहले से एक मृत नदी हो चुकी है।
  2. केन नदी की संयुक्त यात्रा: लेख पढ़ें  तथा ट्वीट पढ़ें केन नदी की एक साथ यात्रा करते समय उनमें बहुत घनिष्ठता थी।
  3. दिल्ली उद्घोषणा का संयुक्त रूप से मसौदा तैयार करना: लेख पढ़ें

उन्होंने नदियों को आपस में जोड़े जाने का संयुक्त रूप से विरोध किया था।

  1. हाल ही में एनजीटी को समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में कोई विश्लेषण नहीं है, कोई गहन जाँच नहीं है, निष्कर्षों का समर्थन करने के लिए किसी भी वैज्ञानिक परीक्षण की कोई रिपोर्ट नहीं है। रिपोर्ट में दिए गए निष्कर्ष बिना किसी वैज्ञानिक आधार के सिर्फ़ विशेषज्ञ समिति की राय हैं। रिपोर्ट डब्ल्यूसीएफ जमीन की वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाती है। बिना किसी  वैज्ञानिक अध्ययन या विश्वसनीयता के ऐसी किसी भी रिपोर्ट पर कार्यवाही कैसे की जा सकती है।
  2. रिपोर्ट का मूल्यांकन अवैज्ञानिक है। किसी भी वैज्ञानिक मूल्यांकन में कुछ न कुछ मात्रात्मक तत्व अवश्य होने चाहिए। चार महीनों के बाद भी, समिति तथाकथित नुकसान की गणना करने के लिए एक भी आकलन प्रस्तुत नहीं कर सकी है। यह समिति की विश्वसनीयता के बारे में गंभीर प्रश्न उठाता है।
  3. समिति ने डब्ल्यूसीएफ जमीन को “आर्द्रभूमि” के रूप में वर्गीकृत किया है। जबकि, दिल्ली के हाल ही में जारी आर्द्र भूमि मानचित्र, 1986 का भारत मानचित्र सर्वेक्षण तथा कई अन्य प्रामाणिक सरकारी दस्तावेज इस भूमि को “आर्द्रभूमि” के रूप में नहीं दिखाते हैं। इसे एक आर्द्रभूमि के रूप में चिह्नित करके, समिति पर्यावरण मंजूरी के नाम पर तथ्यों में हेरफेर कर रही है। सच्चाई यह है कि इस भूमि को हमेशा बाढ़ के मैदान के रूप में वर्गीकृत किया गया है; जिस पर एक रेतील बाढ़ग्रस्त मैदान है।
  4. समिति द्वारा मिट्टी के दब जाने की बात कहना भी पूरी तरह से अवैज्ञानिक है। वैज्ञानिक रूप से रेतीली मिट्टी अथवा नदी तट की मिट्टी की यह विशेषता होती है कि यह कभी भी दबती नहीं है। अतः यह दावा करना कि आर्ट ऑफ़ लिविंग के कार्यक्रम से इस मैदान की मिट्टी समतल हो गई है पूरी तरह से गलत है। वर्ष 1985 में ही इस मैदान को समतल मैदान के रूप में दर्शाया गया था।

उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि इस समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट वैज्ञानिक धोखाधड़ी से कम कुछ भी नहीं है।

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