तेलंगाना – फूट डालो और शासन करो ? | Telangana – Divide and Rule?

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भारत एक अद्भुत देश है – यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसमें संस्कृति, धर्म और भाषा की विविधता पाई जाती है। यह एक चमत्कार ही है कि इतनी अधिक विभिन्नताओं के बाद भी भारत में एकता है, पुराने युगोस्लावियन और सोवियत देशों की तरह यहां अलगाव नहीं हुआ है। हालांकि हमारे पूर्वज बुद्धिमत्ता से देश को भाषा के आधार पर बांट गये थे जिससे कि शासन व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाया जा सके और बातचीत आसानी से हो सके; विशाल जनसंख्या और दूरियों ने बहुत से राज्यों को आगे और भागों में बांट दिया। ऐसी ही एक आपदा की स्थिति तेलंगाना के वर्तमान परिदृश्य में दिखाई दे रही है। तेलंगाना की स्थिति, उत्तराखंड की स्थिति के विपरीत, बहुत अजीब है। उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से इसलिये अलग होना पड़ा क्योंकि यहां के टिहड़ी और गढ़वाल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों से राजधानी पहुंचने में २ दिन का समय लग जाता है, जहां पर कि अधिकतर सरकारी कार्यालय हैं। तो यह बात न्याय संगत लगती है कि उत्तराखंड के लोगों ने एक अलग राज्य की मांग की, जिससे कि सरकार अपना कार्य अधिक सुचारु रुप से कर सके और आपसी बातचीत आसानी से हो सके। जिससे उस क्षेत्र की आर्थिक उन्नति और विकास बढ़ सके। शहर या कस्बे राजधानी से जितना अधिक दूर होते हैं, उतना ही अधिक वे उपेक्षित रहते हैं क्योंकि कई मुद्दों पर वहां सरकारी पहुंच नहीं हो पाती।

ऐसी ही स्थिति बिहार के उन दूरदराज इलाकों में थी, जो कि अब झारखंड राज्य में हैं, वहां किसी भी अफसर का तबादला एक सजा माना जाता था। अच्छे सरकारी प्रबंधन और समृद्धि के लिये अलग झारखंड का निर्माण पूर्णत: न्यायसंगत था। छत्तीसगढ़ में भी समान स्थिति थी। छत्तीसगढ़ के लोग अलग राज्य चाहते थे और मध्य प्रदेश सरकार ने यह मांग मान ली, क्योंकि ऐसा करने से भोपाल के ऊपर अतिरिक्त दबाव कम हुआ। आधारिक संरचना के अभाव में बहुत से राज्यों के सीमा रेखा पर स्थित जिलों तक सरकारी पहुंच नहीं हो पाती और उन के हितों की अवहेलना हो जाती है; हालांकि ऐसा जानबूझकर नहीं किया जाता। दूरवर्ती जिलों में इस कारणवश उपजे असंतोष को दूर करने के लिये कर्नाटक ने तो कुछ महीनों के लिये अपनी राजधानी ही बदलकर बेलागांव कर ली थी, जिसे महाराष्ट्र में शामिल होने की संभावना थी।

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तेलंगाना की बात करें तो यहाँ की स्थिति बिल्कुल विपरीत है। यहां की राजधानी हैदराबाद तेलंगाना में है और सारा निवेश और विकास यहाँ हुआ है। पूरे राज्य की अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा केवल राजधानी पर आधारित है। ऐसी स्थिति में, तटीय आंध्र और रायलसीमा के लोगों को अपनी सरकार बनाने के लिये एक अलग राज्य की मांग करनी चाहिये थी। अब जबकि ये दोनों क्षेत्र अलग नहीं होना चाहते, तो राजधानी के लोगों का यह तर्क समझ नहीं आता कि वे आंध्र से कोई संबंध नहीं चाहते। यह बात समझ पाना कठिन है कि सरकार अपने ही भागों को अलग क्यों करना चाहती है, जबकि नागालैंड जैसे राज्य की मांग है कि उसमें अन्य राज्यों से जिलों को शामिल किया जाये, जिससे कि विशाल नागालैंड का निर्माण हो सके। यह पूरी तरह अनुचित है कि उन लोगों को अलग किया जाये, जोकि एक संयुक्त आंध्र प्रदेश का हिस्सा बने रहना चाहते हैं। यदि आज निजाम जीवित होते तो वह अपने राज्य को छोटा करने की जगह उस को और बड़ा करना पसंद करते। प्राय: बच्चे ही संयुक्त परिवार से अलग रहना चाहते हैं परंतु यहां स्थिति यह है कि पिता ही अपने बच्चों को दूर कर रहा है। क्या लाभ पाने के लिये ? वोट बैंक की राजनीति के अतिरिक्त विभाजन का और कोई कारण नजर नहीं आ रहा।

तेलंगाना की सबसे प्रमुख शिकायत यही है कि राज्य के लगभग सभी क्षेत्रों में सीमांध्र राज्य के लोगों का वर्चस्व है। तेलंगाना के किसी भी व्यक्ति को राज्य के राजनीतिक या आर्थिक क्षेत्रों में शामिल होने से कभी भी रोका नहीं गया। मेहनती और बुद्धिमान लोग जहाँ भी हों, सबका ध्यान आकर्षित कर ही लेते हैं , बिल्कुल वैसे ही जैसे कि गुजराती, पारसी, जैन और मारवाड़ी लोगों का लगभग हर जगह पर वर्चस्व है।

हर जगह अल्पविकसित बस्तियां होती हैं। हैदराबाद में भी झुग्गी झोंपड़ी वाली बस्तियां हैं, हालांकि सब को समान अवसर प्राप्त हैं। इन शिकायतों को दूर करने के लिये इस समुदाय के विकास व उन्नति के लिए समय बाधित आरक्षण पैकेज बनाया जा सकता है। पूरी तरह से इस मुद्दे को यदि देखा जाये तो अलगाववाद का कारण एक पहेली नजर आता है। पूरे आंध्र प्रदेश में भाषा और संस्कृति समान होने के कारण, अभी यह देखना बाकी है कि राज्य का विभाजन कर देने से क्या लाभ होता है, क्योंकि एक क्षेत्र के लोग दूसरे क्षेत्र के लोगों के साथ पूरी तरह से घुले-मिले हैं।

संस्कृत की एक प्राचीन कहावत है,

“यो वै भूमा तत् सुखम, नाल्पे सुखम् अस्ति”

जो बड़ा और भव्य है वह आनंद से भरा है, छोटे बनने में कोई आनंद नहीं।

केवल इसलिये कि किसी क्षेत्र के लोगों का अधिक वर्चस्व है, उनको अलग कर देना समस्या का हल नहीं है। किसी भी क्षेत्र का दीर्घगामी विकास शिक्षा और सशक्तिकरण द्वारा संभव है, न कि विभक्तिकरण द्वारा।

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