आतंक का प्रत्युत्तर | Responding to Terror

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पेरिस में हुए खतरनाक हमले ने दुनिया में सब को हिला कर रख दिया। यह न केवल यूरोपियन जीवन के ढंग पर बल्कि सारे उदारवादी समाजों के सामान्य मूल्यों पर सीधा प्रहार था। बहुत वर्षों से भारत इन आतंकवादी हमलों की त्रासदी झेल रहा है। इराक, अफ़गानिस्तान और अन्य स्थानों पर लगातार होने वाले इन हमलों से मानव-मानसिकता में संवेदनशून्यता आ गई है।

जब ऐसे हादसे होते हैं तो हमें बहुत सी बनावटी निंदा के समाचार और राजनैतिक सहानुभूति सुनाई देती है। इन हमलों के पीछे की मानसिकता क्या है यह जानने हेतु हमें इन हमलों की जड़ में जाने की आवश्यकता है। इनके पास पैसे कहां से आते हैं और इनको हथियार कहां से मिलते हैं। जब गुमराह हुए लोगों द्वारा धार्मिक पवित्रता व गौरव  की आड़ लेकर अमानवीय कृत्य किये जाते हैं, तब उनके साथ किसी भी प्रकार की बातचीत करने या कारण पूछने की अपेक्षा का कोई स्थान नहीं रह जाता। किसी भी प्रकार की सैनिक कार्यवाही मामले को और अधिक बिगाड़ देती है जिसके कारण आतंकवादी मानसिकता की विचारधारा पुनः गठित हो जाती है। यह हम कई वर्षों से बार-बार देखते आ रहे हैं।

यदि समाज हर समय डर के साए में जी रहा है तो, जिस सदी में आज हम रह रहे हैं, यह उसकी परिभाषा तो नहीं है। हमने कहां पर गलती कर दी ? इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? बहुत से प्रश्न उठते हैं जिनका कोई जवाब नहीं है।

क्या सारे धार्मिक नेता कम से कम इस वक्त जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं ?

क्या वे अपने पद और जीवन को खतरे में रखते हुए, इस विचारधारा के विरुद्ध बोल सकते हैं जो कि मानवीय जीवन का आदर नहीं करती ?

क्या सरकार इन हथियारों के संग्रह पर नज़र रखकर व आतंकवादी समूहों को जहां जहां से पैसा मिलता है उन पर रोक लगा सकती है ?

जहां पर समाज में न्याय, भाईचारा, करुणा ही जीवन की मुख्य विचारधारा तथा जीवन दर्शन हो ऐसे साँझे उदेश्य तरफ क्या पूरी दुनिया की तरफ नहीं मुड़ सकती ?

क्या विविधता को सहन करने की जगह उत्सव के रूप में नहीं देखा जा सकता ?

क्या हमारी शिक्षा प्रणाली अंधविश्वास की जगह तर्क – शक्ति को बढ़ावा नहीं दे सकती ?

ऐसे ही हज़ारों प्रश्न एक सामान्य मनुष्य को अधिक तनाव ग्रस्त व निराश बना रहे हैं। कोई ऐसा है जो कि लोगों को जागृत करे क्योंकि अधिकतर लोग अपनी आंखे बंद करके मनोरंजक चैनलों पर या संवेदनशून्य हो कर हिंसात्मक चलचित्रों पर समय बर्बाद कर रहे हैं। इस दुनिया में हमने देखा है कि कई ऐसे नायक आए हैं जिन्होंने सामान्य जन जीवन में एक आशा की किरण जगाई है और समाज का नजरिया ऊंचा उठाने का प्रयास किया है। यह नायक समाज के लिए वरदान है, यह वास्तविक अध्यात्मिक मनुष्य हैं । हमारी मीडिया को इनकी बहादुरी के किस्सों को मुख्य आकर्षण के लोग रुप में लोगों के सामने रखना चाहिए तथा कभी-कभी खुद भी निडरता दिखानी चाहिए।

शिक्षाविदों को जागृत होना चाहिए और शांति की शिक्षा देनी चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ियों में जीवन के प्रति संवेदनशीलता व समझदारी आए। धार्मिक नेताओं को इकट्ठा होकर गुमराह हुए लोगों को अच्छे, सामान्य, मानवीय मूल्यों का ज्ञान देना होगा। मुझे दृढ़ विश्वास है कि यह सुंदर मानवीय मूल्य हमारी पीढ़ी में ही साध्य होंगे।

बहुत बार कई लोग जो पूरे जोश व जुनून के साथ किसी सिद्धान्त के बारे में सोचते हैं वह उस उद्देश्य की पूर्ति  के लिए हिंसात्मक मार्ग भी अपना लेते हैं। उनके उद्देश्य में धार्मिकता या सच्चाई होती है, परंतु उनकी अपने कार्य या उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता प्रशंसनीय होती है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इनका हौसला अदम्य होता है। यदि सही तरीके से इनसे बातचीत की जाए तो यह इन मतभेदों को दूर करने के लिए तैयार हो जाते हैं।

हमने सफलतापूर्वक बहुत से चरमपंथी दलों को हिंसापूर्ण जीवन से निकालकर पुनर्स्थापित करके समाज की मुख्यधारा में मिलाकर शांतिपूर्ण जीवन जीना सिखाया है। वस्तुतः हमारे अधिकांश निशुल्क आदिवासी विद्यालय आतंक ग्रस्त क्षेत्रों में पुराने चरमपंथियों द्वारा ही चलाए जा रहे हैं। आरंभ में यह लोग हमारे स्वयंसेवकों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते थे लेकिन जब उन्होंने देखा कि यह प्रयास उनके अपने समुदाय के लाभ के लिए है तो, वह खुद ही स्वयंसेवक बन गए ।

हमारे विचार और प्रार्थना हमलों से प्रभावित लोगों के साथ हैं। ऐसी घटनाओं के कारण गुस्सा फैल जाता है व समाज का विभाजन जातीयता व धर्म के आधार पर हो जाता है। परंतु असली विभाजन संकीर्ण मानसिकता व खुली मानसिकता के बीच होना चाहिए। संकीर्ण हठधर्मिता के कारण केवल आपस में भेदभाव बढ़ते हैं, इसके लिए ज्ञान व विशाल मानसिकता व अवलोकन की आवश्यकता है।  दुनिया को पहले वाला हिंसा पूर्ण जीवन नहीं चाहिए बल्कि आने वाला स्वस्थ शांतिपूर्ण समाज चाहिए।

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