हठधर्मिता: तार्किक या तर्कहीन | Fanaticism: Rational or Irrational

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जीवन अगाध है, लेकिन लोग अपने विभिन्न दृष्टिकोणों से इसकी गहराई नापने का प्रयास करते हैं। इतनी व्यापक सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक  विविधता पूर्ण आस्थाओं के साथ जीवन, भारत के सिवा इतने स्पष्ट रूप में और कही भी नहीं मिलेगा।

जब सभी को संविधान द्वारा अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य प्रदान किया गया है,तब असंतोष अपरिहार्य है, लेकिन हिंसा इसे व्यक्त करने का माध्यम बिलकुल नहीं है। जो कोई भी अपनी असहमति को हिंसा द्वारा व्यक्त करता है, वह केवल  कायरता को ही प्रकट करता है। हाल ही में धारवाड़ के विख्यात विद्वान प्रो. एम एम कालबुर्गी की  मूर्ति-पूजा के विरुद्ध अपने विचार व्यक्त करने पर हत्या कर दी गई। उनकी हत्या निंदनीय है और हानि केवल कर्नाटक राज्य के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के तत्वज्ञान प्रेमियों के लिए भी है। जिन लोगों ने उनकी हत्या की वे आईएसआईएस (ISIS) जैसे बर्बर आतंकी समूह से अलग नहीं है।

हमारे देश में, अलग-अलग दृष्टिकोण का हमेशा स्वागत किया गया है और इन्हीं से हमारी संस्कृति को एक अनूठी समृद्धि प्राप्त हुई है। भक्ति सूत्र विभिन्न संतों के विचारों को प्रस्तुत करता है और सभी का आदर भी करता है । जिस तरह से असहमति और संघर्ष को हल किया जाता है, उसी से उस समाज की सुशीलता या सभ्यता का पता चलता है। आजकल टीवी पर दिखाये जाने वाले वाद-विवाद से एकदम विपरीत, आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच के प्रसिद्ध वाद-प्रतिवाद में विजेता का निर्णय एक बहुत ही अनूठे मानदंड से – पुष्पहारों का उपयोग करके किया गया था।

सत्य इतना विशाल है कि अकेले एक परिप्रेक्ष्य में इसे शामिल नहीं कर सकते है। इसमें अंगभूत अनेक तर्क एक दूसरे के साथ विरोधी प्रतीत हो सकते है। यही कारण है की भगवद गीता विरोधाभासों से भरी हुई है । इसलिए, बुद्धिमान लोग विभिन्न दृष्टिकोण होने के की अपेक्षा भी एकही बिंदु/तथ्य पर एकाग्र होते है। – “शायद …” जितना हम ज्यादा जानने लगते हैं, उतना ही ज्यादा हमें अनुभूति होती है की, हम कुछ भी नहीं जानते।

हर किसी को जैसे चाहे वैसे अपनेआप को अभिव्यक्त करने का अधिकार है, लेकिन अपने अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की आड़ में लोगों की भावनाओं को आहत करना उचित नहीं है। एक पुरानी संस्कृत कहावत है,

“सत्यम् ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियम् नानृतं ब्रूयात् एष: धर्मः सनातनः ।।”

अर्थात -“सुखकर वाणी के साथ सच बोलिए। न तो ऐसा सत्य बोलें, जो दूसरों को अप्रिय लगे और न ही असत्य, जो दूसरों को सुखकर लग रहा हो। इस तरह का आचरण ही सनातन धर्म है।”

यद्यपि ईश्वर निराकार है, लेकिन किसी को आनंद मिलता है तो ईश्वर को मूर्ति रूप मानने में कोई बुराई नहीं है। देवत्व से जुड़ा हुआ भाव ही मायने रखता है और अगर कोई एक विशेष रूप या मूर्ति के माध्यम से भावपूर्ण संबध का अनुभव करता है तो, ऐसा करने के लिए उसकी आलोचना करना अनुचित है। एक तर्कसंगत दृष्टिकोण से, मूर्तियों और अनुष्ठानों का कोई अर्थ नहीं है, लेकिन कईयों के लिए, यह आत्मा के उत्थान मार्ग है। तो समझें कि अगर मूर्ति में देवत्व नहीं, तो देवत्व भक्त के उस भाव में तो है, जो मूर्ति की वजह से उसमें उत्पन्न होता है। हर एक स्तर की समझ और बोध के लोग यहाँ हैं और हमारी प्राचीन संस्कृति की उदारता यह है कि वह प्रत्येक को, चाहे वो किसी भी स्तर पर भी हो,अपनाती है।

क्या सही है और क्या गलत है, इस पर संकुचित मानसिकता होना ही धर्मान्धता है। यहाँ तक कि तर्कसंगत विचार भी यदि कोठरी में बंद कर दे तो वह धर्मान्धता की ओर ले जा सकते हैं और तर्कहीन विचार भी अगर मुक्त और निष्कपट हो तो सत्य की ओर ले जाते हैं।

[यह लेख ७ सितंबर, २०१५ को आईबीएन लाइव ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित हुआ है : http://tinyurl.com/obca28e]

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