मानवीय धारणाओं के बदलते रंग | Varying Hues Of Human Perception

यह पृष्ठ इन भाषाओं में उपलब्ध है: English

मानव जाति में अनेक विभिन्नताएं हैं, इसी प्रकार उनकी संस्कृति तथा मान्यताओं में भी। वैसे तो धर्म किसी विशेष जाति तथा राष्ट्र में जन्म लेता है, परंतु आज इसने जाति तथा राष्ट्रीयता की यह दीवारें तोड़ दी हैं। यद्यपि धर्म ने अपना अस्तित्व बना कर रखा है लेकिन मेज़बान देशों के सांस्कृतिक प्रभाव से प्रतिरक्षा संभव नहीं है। यह एक रोचक बात है कि कुछ धर्मों में जिस बात को ईशनिंदा माना जाता है, कुछ धर्मों में वही गर्व की बात है। उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में संत या भगवान की भूमिका निभाना बहुत बड़ी बात मानी जाती है। प्रति वर्ष राम लीला, कृष्ण लीला में हजारों लोग पूरे भारत में श्री राम, श्री कृष्ण, हनुमान तथा अन्य ईश्वरीय पात्र के जैसे वस्त्र पहनकर स्वयं को उनके पात्र में ढालतें हैं। ईसाई धर्म में क्रिसमस पर जीसस को श्रद्धांजलि देने के लिए उनके जन्म की झांकियां सजाई जाती हैं तथा सब लोग भी उनको आदर के साथ देखते हैं। बहुत से कलाकार ईश्वरीय पात्र निभाते समय अपनी बुरी आदतों को छोड़ देते हैं। लोग अपने हाथ में बड़े-बड़े क्रॉस ले कर, जेरूसलम की सड़कों पर जीसस के कदमों के निशान ढूंढते हैं तथा येशु (जीसस) के सूली पर चढ़ने की घटना को याद करते हैं। इस मूल धारणा का अर्थ यही है कि आप जब किसी की नकल करते हो तो आप उनके गुणों को ग्रहण करते हो।

इसके विपरीत इस्लाम धर्म में इस तरह के पात्र निभाना ईश्वर की निंदा समझा जाता है तथा इसे पैगंबर का अपमान समझते हैं। वस्तुतः संगीत, मूर्तिकला ,नृत्य तथा चित्रकला का इस्लाम धर्म में कड़ा निषेध है।

”पैगंबर कहते हैं कि अल्लाह ने उनको आदेश दिया है कि सारे संगीत वाद्य यंत्रों, मूर्तियों, क्रॉस और अज्ञानता के प्रतीक साज सामान को नष्ट कर दो“। – हदीस कुदसी 19.5

“अल्लाह शक्तिमान और वैभवशाली है और उन्होंने मुझे इन निर्देशों के साथ भेजा है कि मैं लोगों को समझाऊं तथा विश्वास करने वाले अनुयायियों पर दया करते हुए वाद्य यंत्रों, बांसुरी, सितारों आदि से दूर करूं।” (मुस्नाद अहमद और अबू दावूद तयालिसी)

मनुष्य कला के इन अभिव्यक्तियों के बिना नहीं हो सकता है। धीरे धीरे हिंदुत्व के प्रभाव से सूफी धर्म का उदय हुआ। यद्यपि यह रुढ़िवादी इस्लाम में निषेध है, तथापि संगीत धीरे-धीरे समाज में वापस अपना स्थान लेने लगा, परन्तु कट्टरवादी आज भी इसका विरोध करते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि इसका एक समानांतर भगवद् गीता में भी पाया जा सकता है।

बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मान नियम्य च।
शब्दादीनि्वषयास्तयकत्वा रागद्वेषौ व्यूदस्य च।। – (अध्याय १८ श्लोक ५१ )

इस श्लोक में श्री कृष्ण ने कहा है कि दिव्यता चाहने वाले साधक को सारे संवेदक विषयों जैसे सुनना तथा देखना आदि से परे जा कर योगी बनना चाहिए। यह बात सामान्य जीवन शैली अपनाने वाले व्यक्तियों के ऊपर लागू नहीं होती, बल्कि योगियों को ऐसा करने के लिए कहा गया है। एक ओर हिंदुत्व में संगीत को बहुत सम्मान दिया गया है तथा इसको नाद ब्रह्म कहा गया है और दूसरी ओर बताया गया है कि ध्वनि को पार करके सर्वोच्च सत्य परब्रह्म तक पहुंचा जा सकता है। यही विरोधाभासी मूल्य हिंदू धर्म को व्यापक दृष्टिकोण देकर बहुत अधिक सहनशील बनाते हैं।

राजनेताओं की आलोचना, नकल और उनपर दोषारोपण करना बहुत से देशों में संवैधानिक है; परंतु कुछ देशों में यह अपराध हैँ। पश्चिमी देश भाषण की स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं और लोगों को अत्यधिक स्वतंत्र राय देने की आजादी है, जबकि अन्य कई देशों में इस तरह की अभिव्यक्ति लोगों की भावनाओं पर आघात माना जाता है। इसका उदाहरण इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिमस जैसे चलचित्रों के कारण हुई अत्यधिक हिंसा में देख सकते हैं। भयभीत करने वाली बात यह है कि इस चलचित्र के विरोध प्रदर्शन के दौरान, बहुत बड़ी संख्या में निर्दोष मुस्लिम मारे गए।

अंततः यही बात सामने आती है कि हम ही अभिव्यक्ति को अर्थ देते हैं। कहीं पर जहां लोग बहुत अधिक संवेदनशील होते हैं, वहां पर वह बुद्विमान नहीं होते और जहां लोग बहुत अधिक बुद्धिमान होते हैं वहां संवेदनहीन हो जाते हैं। आज के इस वैश्विक समाज में संवेदनशीलता तथा बुद्धिमत्ता दोनों के बीच सही संतुलन की आवश्यकता है।

यह पृष्ठ इन भाषाओं में उपलब्ध है: English

प्रातिक्रिया दे

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>